Wednesday, November 3, 2010

दिल्लीहा , बम्बइया बाबू लोग ,सिगरेट और प्लेनेट डी

दिल्लीहा , बम्बइया बाबू लोग ,सिगरेट और प्लेनेट डी
हर साल गर्मियों की छुट्टियों याने मई जून के महीनों में इस शहर में ऐसे लोग दिखायी देने लगते है जो यहाँ के नहींलगते , कुछ कुछ टूरिस्टनुमा लोग इन्हें दूर से ही पहचाना जा सकता है; ऐसा नही है कि ये लोग दूसरे ग्रह के लोगलगते है पर फिर भी शहर के बाशिन्दे इन्हें देखते ही पूछ पड़ते है , “ कहाँ रहेलSS बाबू ?” कारण ये कि ये लोगअक्सर चेहरे पर दाढ़ी का छोटा सा मस्सा लगाये या नये कटिंग के बालों के साथ दिखते है इनकी कमीज बाकियोंसे कुछ ज़्यादा ही उजली होती है , ये हर चार पाँच लाईन बोलने के बाद कुछ अंग्रेजी में बोलते है और रिक्शा वालाबाहरी समझकर किराया ज्यादा माँग ले इसलिये उससे भोजपुरी में ही बतियाते है ये वो लोग है ATM मशीनके बाहर शरीफ़ाना ढ़ँग से लाईन में खड़े रहते है और ATM मशीन के बूथ में अकेले जाना चाहते है, जब दूसरे पैसानिकाल रहे हो तो अपनी गर्दन उचका करहउ दबाईये, आज सलो बा, चलत बाजैसे जुमले नही उछालते अपनी समझ में ये खुद को मॉड समझते है, दुनिया के साथ चलने वाले, ये बात दीगर है कि शहर के बाशिन्दे इन्हेटीनहिया हीरोकहते है क्योंकि ये मर्दों की परम्परागत परिभाषा में फिट नही होते ये रूपये के अवमूल्यन औरमनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण के बाद वाली पीढ़ी के लगते है इन्हें देवरिया में हर चीज सस्ती लगती है हैण्डपम्प का पानी पीने से इनका पेट खराब हो जाता है और कमबख्त देवरिया में बिसलरी की बड़ी वाली बोतलमिलती भी तो नही ये गगन या हैवेन ड्यू रेस्टोरेंट में कभी कभी ऐसी चीज की फ़रमाईश करते है जो वहाँ के बेयरेने सुनी भी ना हो जैसे कापुचिनो ये अक्सर खा- पी कर उठते हुएकेतना भईल हो !” की जगहबिल प्लीजकहते है ये लोग भोजपुरी गाने नही सुनते और अगर सुनते भी है तो तब जब इण्डियन ओशेन जैसा कोई बैण्डगाये देवरिया आकर ये अकसर अतीत की जुगाली करते है , एक ऐसा कोना ढ़ूंढ़ते है जहाँ स्मृतियों को बक्से सेनिकाल कर धूप दिखा सके ये शहर भर में घूमते है, पुराने चौराहों और अमर ज्योति टाकिज के बाहर की डोसे कीदुकान पर जाते है और अतीत में गुम अपनी निर्दोष हँसी के ठहाकों की प्रतिध्वनियाँ तलाशते है आठदस पहलेतक ये अपने घरों में चिंटू, बबलू, राजू, बिरजू थे आज ये दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग है

उत्तर भारत के हर आम शहर की तरह देवरिया से भी लड़के लड़कियाँ बाहर पढ़ने जाते रहे है शहर में कोईयूनिवर्सिटी है नही, कुल जमा तीन कालेज है देवरिया में कुरना नाले के पार शहर के सीमान्त पर बना हुआ हैबाबा राघव दास पी.जी. कालेज जिसे लोग प्यार से KNIT कुरना नाला इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलोजी भी कहते रहे है कालेज गेट के ठीक पहले एक रेलवे क्रासिंग है जिसका इस्तेमाल लड़के चेन खींच कर ट्रेन रोकने, किसीआन्दोलन में ट्रेनों का रास्ता रोकने में करते रहे है बाबा राघव दास पी.जी. कालेज उर्फ़ BRD की इमारत सरकारीइमारतों की तरह पीले रंग से रँगी हुई है B.Sc करने के लिये यह शहर भर में एकलौता कालेज है यहाँ बहुत सारेगुणी अध्यापक है यहाँ के गणित के प्रोफ़ेसर को देवरिया के छात्र गणित का भीष्म पितामह कहते है यह बातऔर है कि भीष्म पितामह एक शादी शुदा, घर परिवार वाले व्यक्ति है हनुमान मंदिर के दाहिने ओर जाने वालीसड़क पर कुछ दूर आगे जाकर बन है महिला पी.जी. कालेज जाने क्यों यहाँ आज भी छात्राओं के लिये नीले रंगकी यूनिफ़ार्म पहनना जरूरी है कालेज के गेट के ठीक पास एक स्टेशनरी की दुकान है, एक सौन्दर्य प्रसाधन नुमादुकान और एक फोटो स्टूडियो हैं। कालेज तक आने वाली सड़क के शुरु में ही एक पुलिस बूथ बना है जहाँ अक्सरलड़के बैठे या गायें लेटी हुई मिलती है शहर के न्यू कालोनी मोहल्ले और खरजरवा की सीमा पर है संत विनोबापी.जी कालेज जो देवरिया की कचहरी के लिये हर साल थोक मात्रा में वकील सप्लाई करता है BRD के छात्रों कीउर्जा का एक बड़ा हिस्सा इस बात में खर्च हो जाता है कि कैसे रोडवेज की बसों में बिना एक रुपया दिये कालेज तकपहुँचे संत विनोबा पी.जी. कालेज का प्रचलित नामसंतबीनवाहै महिला पी.जी. कालेज या महिला में हालफ़िलहाल तक हिन्दी और समाज शास्त्र विभाग में एक एक अध्यापक थे हिन्दी विभाग के अध्यापक एम.. मेंगोल्ड मेडलिस्ट थे , इस बात की ताईद आज भी उनके घर पर लगे नेम प्लेट से की जा सकती है
पर इन सबके बावजूद ये लड़के लड़कियाँ पढ़ते है , यहाँ से बी.एच.यू. , जे.एन.यू. जाते है देवरिया में रहकर तैयारीकरते है और बैंक पी.. से लेकर लेक्चरर तक बनते है हाँ आजकल विशिष्ट बी.टी. सी. के द्वारा प्राईमरी काअध्यापक बनना जरा फ़ैशन में है सरकारी नौकरी पाने वाले यहाँ इज्जत से देखे जाते है इलाहाबाद के दारागंजदिल्ली के नेहरु विहार में सालों अँधेरी कोठरी में रहकर, खैनी चबा कर , दिन रात पढ़ कर जब यहाँ के लड़के कभीबनकर लौटते है तो भगवान सरीखे हो जाते है ये हर जानने वाले के घर जाकर आशीर्वाद लेते है, छोटोंको मेहनत और लगन का उपदेश देते है , लोग अपने बच्चों को इनके जैसा बनने को कहते है अचानक शहर भरमें कहानियाँ सुनायी देने लगती है कि फ़लाँ सब्ज़ी वाले या पान वाले का लड़का PCS, IAS हो गया। देवरिया भर केलोग आप को बता सकते है कि कैसे ये लड़के खाली ब्रेड खा कर पढ़े, इतनी मेहनत किये कि गर्दन के नीचे की हड्डीमें पाव भर चना रखने भर की जगह हो गयी थी। कोई चाचा कहते है किबाबू !जब ओकरा के देखनी पढ़ते देखनी राघव नगर के तिराहे पर 302 किमाम का बीड़ा बँधवाते वकील साहब कहते है, “ भाई मिश्रा जी ! सुकुलजीउवाका लड़का बाज़ी मार लिया मिश्रा जी दाँत खोदते हुए जवाब देते है वकील साहब ! देवरिया प्रतिभाओं की खान होगया है
देवरिया में हमेशा से इतने लोग बाहर पढ़ने नही जाते थे BRD के पास के पालिटेक्निक कालेज में पढ़ने सेइंजीनीयर की नौकरी पक्की हुआ करती थी , BRD में हिन्दी के लेक्चर में पाँव रखने को जगह नही होती थी, संतबीनवा कभी मॉड कालेज हुआ करता था आज देवरिया में खुद को टीन-एजर कहने वाले लड़के शायद इसबात पर हँसे लेकिन 88-89 तक लोग यहीं रहना चाहते थे लड़के, लड़कियाँ बारहवीं पास करते हुए सपने देखते थेकि नई हीरो रेंजर साईकिल पर BRD या संतबीनवा में पढ़ने जायेंगे और खूब सारे लेक्चर अटेण्ड करेंगे उससमय तक अमूमन होता भी यही था ।लड़के दिन भर क्लास करते घर आते और शाम होते ही शहर भर के दोस्तोंके साथ घूमने निकल जाते थे वे आमिर माधुरी की फ़िल्मे देखते और प्यार के रंगीन सपने बुनते थे शरतचंद्रकी किताबे पढ़ते और उनसे लाईनें टीप कर प्रेम पत्र लिखते थे लड़के लड़कियाँ मिलकर देवरिया में नाटकआयोजित करते , एक दूसरे के घर आते जाते, Bio की क्लास में लड़के अपनी उँगली से खून का कतरा निकाल करलड़कियों की स्लाईड बनवाते थे और इन सब के बीच अक्सर लड़के की दादी या नानी बीमार पड़ जाया करतीऔर उनकी इच्छा होती कि मरने के पहले बहू का चेहरा देख ले। लड़का कुछ दिन तक चुपचाप रहता, दाढ़ी नहीबनाता और एक दिन बारात के साथ थ्री पीस सूट पहन कर पिता द्वारा तय की गयी शादी कर लेता और बजाजचेतक स्कूटर और एक अदद बीबी लेकर घर चला आता अबतब में मरने वाली दादी / नानी अगले कई सालोंतक हँसीखुशी रहती थी
98-2000 के आस पास बारहवी पास करने वाली पीढ़ी के सपने बड़े थे देवरिया उनके लिये छोटा था , येआसमान छूना चाहते थे ये लोग दूरदर्शन और ज़ी टी.वी. दोनो देखते थे दूरदर्शन पर सुबह सवेरे में शान कागानाआँखो में सपने लिये घर से हम चल तो दिये ..” देखेते हुये ये बाहर जाने का सपना बुनते थे 2000 केआस पास देवरिया में एक अघोषित नियम सा बन गया था बारहवीं पास कर इंजीनयरिग या मेडिकल की कोचिंगके लिये बनारस या कानपुर जाने का जो लोग बी.. करने वाले थे वे देवरिया में रह जाते या इनवर्स्टी में पढ़नेगोरखपुर चले जाते 98 और उसके पहले तक दिल्ली बम्बई वगैरह देवरिया से बहुत दूर थे वहाँ रहने वाले औरवहाँ से आने वाले लोग देवरिया में VIP का दर्जा रखते थे जब भी वे आते इन्हें आस- पड़ोस में खाने पर बुलायाजाता था दिल्ली में रहना उन दिनों सफल होने की निशानी हुआ करती थी दिल्ली, बम्बई से आया आदमी शानसे सूरज टाकीज के आगे के विजय आप्टीशियन की दुकान पर जाकर डेढ़ दर्जन चश्में देखकर बिना खरीदे सकता था और किसी देवरिया वाले के ऐसा करने पर झिड़क कर , “ खाली देखे अईल हवा, ले वे के बा नाहीकहनेवाला दुकानदार दाँत चियार कर कहता थाअरे भईया, अब दिल्ली बम्बई जैसा थोड़े मिलेगा यहाँ, पैसा खरचाकरना चाहते नही यहाँ लोग।
2004-05 तक दिल्ली वगैरहा देवरिया से उतने दूर नही रह गये थे लगभग हर परिवार का एक लड़का, लड़कीबाहर पढ़ाई या नौकरी कर रहा था देवरिया अपनी रफ़्तार से चलता रहा, महिला की लड़कियाँ किताबें सीने सेलगाये , सर झुका कर रूपसिंगार निकेतन आती जाती रही 90 के बाद पैदा हुए लोगों ने बारहवीं तक के लियेदेवरिया में रुकना ठीक नहीं समझा ये वो समय था NIIT और APTECH पुराने पड़ चुके थे, और देवरिया केलोग भी हास्पिटालिटी मैनेजमेंट समझने लगे थे। ये रोडीज देखेने वाली जेनेरेशन थी और देवरिया इनके लियेबहुत स्लो था ये लोग रियलिटी शो में वोट करते थे, हाईस्कूल में आते आते कैमरा, MP3 वाला मोबाईल रख करचलते थे देवरिया में इनके लिये कुछ नहीं था , फ़िल्म देखने इन्हें गोरखपुर जाना पड़ता था ये बाल कटाने किसीगुमटी में नही न्यू कालोनी के एक जेण्टस पार्लर जाते थे और चेहरे के रोओं पर उस्तरा फिरवाकर मनों क्रीमलगवाकर मसाज कराते थे ये लड़के SplitsVilla देखते और बड़े भाईयों से पूछते , “ hey bro! Did you have a GF in high school?” | कभी कभी लगता था कि अचानक देवरिया भर के लड़के अंग्रेजी बोलने लगे हैं कमलेशवस्त्रालय इन दिनों सून-सान रहता था वहाँ बैठने वाला दर्जी आजकल सिर्फ़ पेटीकोट सीता था और ये लोग अक्सरमें “Buy1 Get 3” करते पाये जाते थे जवानों की पुरानी पीढ़ी देवरिया में रही और रची- बसीथी , ये नये लोग देवरिया में रहकर भी देवरिया में नहीं थे और इनके बीच 80 के आस पास पैदा होने और 2000 केइर्द गिर्द बारहवीं पास करने वालों की एक पूरी जमात थी जो देवरिया और दिल्ली के बीच खुद की जगह तलाश रहीथी
बारहवीं के बाद देवरिया छोड़ने वाले ये लोग दिल्ली, बम्बई, बैंगलोर वगैरह में पढ़ाई या नौकरी करते थे और सालमें एकाध बार देवरिया में पाये जाते थे दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग सिगरेट के शौकीन थे सिगरेट देवरिया मेंक्रान्ति का प्रतीक है, गुटखा पेटी बुर्जुआ और यूँ कह लीजिये पान सामंतवाद का इन बाबू लोगो के लिये देवरियामें बिना इज्जत गँवाये सिगरेट पीने का कोना खोजना कोल्म्बस की खोज यात्राओं से कम नही था देवरिया मेंआप ज्यो ही सिगरेट(पान) की दुकान के आस पास दिखे , पीछे से एक चाचा, मामा नुमा आवाज आती है, “ का होबिरजू, कईहा अईला ?” या आप दुकान पर पहुँचे और एक अजनबी सा आदमी आपसे पूछ पड़ता है, “ तू उमानगर वाले वकील साहब के छोटका लईका हवा ना ? कईहा अईला ?” और जीन्स की जेब में डाले हाथ में फँसासिगरेट के लिये निकाले जाने वाला दस का नोट चुपचाप फिर से जीन्स की जेब में सुस्ताने लगता है देवरिया मेंसिगरेट पीना लफ़ंगेनुमा लोगो के लिये आरक्षित है , शरीफ़ लोग पान की दुकान परपंडिज्जी ! एक 302 किमामकहते मिलते है ऐसे समय में बाबू लोग सिगरेट पीने सुबह शाम ओवर ब्रिज के पास के सेवा समितिबनवारी लाल नाम के इंटर कालेज के मैदान में चले जाते और नज़र लगाये रखते कि कोई परिचित तो नहीं रहा ऐसा नही कि देवरिया में सिगरेट पीने वाले लोग नही रहे, लोग शुरु से रहे है और ये भी माना जाता रहा कि वे इसशहर में रूकेंगे नही अंग्रेजी वाले मास्साब जिनके पैजामे का नाड़ा हमेशा लटकता रहता था और जो जूलियससीजर बहुत अच्छा पढ़ाते है एक कहानी सुनाते थे कि उनका एक दोस्त था, बी.. में साथ पढ़ता था, सिगरेट पीताथा, बाद में दिल्ली चला गया और आज गोआ में लेक्चरर है मोहल्ले दर मोहल्ले सिगरेट पीने का कोना तलाशनेवाले इस लोगो के लिये देवरिया में एक छोटा सा रेस्टोरेंट खुला,Time Out | सुनार गली की एक एक छोटी सी गलीमें था यह रेस्टोरेंट , एक दूसरे के इर्द गिर्द चारपाँच मेजे, दीवार पर कुछ पोस्टर, कोने में लगा एक्जास्ट फ़ैन औरकाउन्टर पर बैठे अंकल जी ये बाबू लोग हर सुबह ग्यारह बजे के आस पास वही मिलते दस रूपये की काफ़ी औरशहर भर में आठ रूपये में मिलने वाले आमलेट के बीस रूपये देते और मुग्ध भाव से सिगरेट पीते Time Out इनलोगों का रोमाटिंक सपना था जहाँ अक्सरपुरानी जीन्स और गिटारजैसे गाने बजते रहते और ये Time Out कोनाम के बैण्ड के म्यूजिक वीडियो में दिखाया जाने वाला काफ़ी हाउस मान कर मगन रहते
ये लोग नियम कानून मानने वाले लोग थे। ये सूरज टाकिज पर लाईन में लगकर टिकट लिया करते थे औरपब्लिक प्लेस में सिगरेट पीने से बचते थे। शुरु शुरु में ये Time Out में भी सिगरेट नहीं पीते थे। एक दिन वहाँअंकल जी को सिगरेट जलाता देख इनमें से किसी ने पूछा, “हम यहाँ सिगरेट पी सकते है ?” मूँछ रखने और रखने की बार्डर लाईन पर खड़े अंकल जी मुस्कुराते हुए बोले, “जब मैं यहाँ पी सकता हूँ तो तुम क्यों नहीं काउंटरके पीछे बैठे अंकल जी अक्सर विल्स नेवी कट पीया करते थे। नेवी कट सिगरेट जिसे देवरिया की पान की दुकानोंपरभील्सके नाम से जाना जाता था। इन दुकानों पर नेवी कट माँगने पर दुकानदार अक्सर ऐसा मुँह बनाता थाजैसे हनुमान मंदिर चौराहे की चाय की दुकानों पर किसी ने डीकैफ़ मोका माँग लिया हो , दुकान पर रखी डिब्बियोंकी ईशारा करने पर दुकानदार कहता था, “सीधे कहSS भील्स चाही
Time Out में मोटे तौर पर तीन तरह के लोग आते थे। एक ये बाबू लोग ; दूसरे कोट-टाई पहन कर शहर दर शहरब्राम्ही आँवला केश तैल बेचने वाले लोग जिन्हें अंग्रेज़ी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव कहा जाता था ; तीसरे वे लड़केलड़कियाँ जो अलग अलग आते, थोड़ी देर अलग अलग मेजों पर बैठकर एक मेज पर बैठ जाया करते थे और 15 मिनट के अंतर पर अलग अलग निकलते थे। ये लड़के अक्सर कोक पीया करते ,लड़कियाँ बहुत कम हँसती थीऔर देर तक स्प्रिंग रोल का टुकड़ा कुतरती रहती थी। इन बाबू लोगों की शिकायत थी कि देवरिया में नेवी कटनकली मिलती थी और जिसे पीने पर मुँह कसैला हो जाया करता था। धीरे धीरे इन बाबू लोग कि सुविधा के लियेमें सिगरेट भी मिलनी शुरु हो गयी और ये नेवी कट मुँह कसैला नही करती थी बेयरा अब मेज परकाफ़ी के प्यालों के साथ दो नेवी कट ,टेक्का छाप माचिस और ऐश ट्रे भी रख जाया करता था। अंकल जी का बड़ालड़का नोयेडा में किसी फ़ास्ट फूड चेन में ऐक्जीक्यूटिव था अंकल बताते कि ये काफ़ी मशीन वही लाया था औरवो सोच रहे है कि मेन्यू में कापुचिनों भी रखा जाये। उनके पास इन बाबू लोगों से बतियाने के लिये बहुत कुछ था, दिल्ली नोयडा के बारें में, MBA की डिग्री की बढ़ती डिमांड के बारे में, और ये बाते सुनतेकहते बाबू लोगएटहोमफ़ील करते थे

एक साल गर्मियों में इन्होने पाया कि Time Out उस छोटी सी जगह से मेन सुनार गली में शिफ़्ट हो गया है जिनदिनों ये घटना हुई उन्हीं दिनों दिल्ली में अम्बुमणि रामदौस फ़िल्मों में हीरो को सिगरेट पीता दिखाये जाने कीबात कह रहे थे, डायरेक्टर ये सोच रहे थे कि टेंशन में घिरे हीरो और वैम्प को पर्दे पर कैसे दिखाये, दिल्ली के बसस्टैंड पर सिगरेट पीने का जुर्माना दो सौ रूपये था, रेस्टोरेंट में सिगरेट के लिये अलग स्मोकिंग ज़ोन बनाना जरूरीथा, दिल्ली में कुछ लड़के पब्लिक प्लेस की परिभाषा और इस बात पर बहस कर रहे थे कि सड़क पर चलते हुएसिगरेट पीने से जुर्माना होगा या नहीं ऐसी ही गर्मियों में इन बाबू लोगों ने पाया कि Time Out की नयी जगहबड़ी तो थी लेकिन सड़क के ठीक किनारे थी और Time Out में अब सिगरेट पीना मना हो गया था। कॉफ़ी वही थीलेकिन बिना सिगरेट बेमज़ा हो गयी थी। एक बेचारे से चेहरे के साथ अंकल जी ने कहा भी, “जानते ही हो वोस्मोकिंग ज़ोन वाला आर्डर, यहीं दरवाजे के पास कुर्सी खींच कर पी लो पर वह ये नहीं समझ पाये कि दरवाजे परबैठने से पूरी सड़क उन्हें देख सकती थी और साथ ही नये Time Out में छोटी जगह का एहसास भी नहीं था ऐसीकिसी दुपहर वहाँ से लौटते एक बाबू ने कहा, “ Partner ! Deoria is no more.
Time Out के बाद ये बाबू लोग शाम का इंतजार करते और लाईट कटते ही किसी अनजाने मोहल्लें में टहलते हुएया पोस्टमार्टम घर के पास अंधेरे कोने में सिगरेट पीते। किसी भी गली या मोहल्लें में निरूद्देश्य घूमना देवरिया मेंसामाजिक अपराध है और अगर आप कहीं रात दस बजे के बाद टहल रहे हो तो हो सकता है कि पुलिस वालेआपको जीप में बिठाकर शहर से दस किलोमीटर दूर बैतालपुर छोड़ आये और बोले किअब टहलते हुए घरजाओ इन बाबू लोग में अक्सर इस बात पर भी बहस होती कि कौन से मोहल्ले जाये क्योंकि हर मोहल्ले मेंकिसी किसी के परिचित लोग थे। ओवर ब्रिज से आगे प्रेस्टिज ट्यूटोरियल के सामने की पान की गुमटी भी कुछदिनों तक ठिकाना रही पर मुसीबत यह थी गोरखपुर आने-जाने वाली बस इसी सड़क से गुजरती थी और बस मेंबैठे लोग आपको आसानी से देख सकते थे और बस की गति के सापेक्ष गति से जब तक आप सिगरेट फेंके याछिपाये तब तक आपका नाम लंफगों की लिस्ट में दर्ज हो चुका होता था ड्यूटी करने रोज़ गोरखपुर जाने वालेतिवारी जी, जो अक्सररंगीन रातेंजैसी फ़िल्में देखते गोरखपुर के कृष्णा टाकिज में पाये जाते थे, घर लौटकरअपनी पत्नी से कहते , “सुनतहौ हो! माट्साब के लईकवा लखैरा हो गईल बा, देखनी आज ओवरब्रिजवा के लगेधुँआ उड़ावत रहे
इसके बाद सिलसिला शुरु हुआ देवरिया में चाय की ऐसी दुकाने तलाशने का जहाँ ग्राहक अक्सर गायब रहते हो।जहाँ दुकान पर बजरंगी स्वीट्स जैसा कोई बोर्ड टंगा हो और मिठाई के नाम पर पत्थरनुमा लड्डू हो हो क्योंकिदेवरिया में दुकान पर बोर्ड होना इस बात का सूचक है कि दुकान ठीक ठाक चल रही है ऐसी दुकानों पर अक्सरएक बूढ़ा आदमी बाँस के पंखे या बेना से मक्खियाँ मार रहा होता, दुकान के आगे कोयले के टुकड़े बिखरे होते, पानीफैला होता , मेजे मैल में लिपटी होती और 3-4 चाय की बिक्री के लालच में दुकानदार दुकान के भीतर सिगरेट पीनेसे मना नहीं करता पर देवरिया जैसे खाते- पीते शहर में ऐसी बहुत दुकानें नहीं थी और फिर ये बाबू लोग दुकानकी फर्श पर राख झाड़ते हुए ग्लानि और अपराधबोध के बीच की कोई चीज महसूस करते थे। एक दिन इस बाबूमंडली के किसी कोलम्बस ने विजय टाकिज के आगे वाली रिक्शा खटाल के सामने की चाय की दुकान के बारें मेंबताया यह एक छोटी सी दुकान थी जिसका अगला हिस्सा सड़क पर तोंद की तरह फैला था। दुकान थी सड़क केकिनारे लेकिन मिठाई वाली काउन्टर के पीछे की मेजे सड़क से नहीं दिखती पर समस्या यह थी कि यहाँ चाय तोबिकती थी लेकिन सिगरेट नहीं। इसलिये ये लोग अक्सर विजय टाकिज और बंद पड़े अमर ज्योति टाकिज केतिराहे पर साजन साईकिल रिपेयरिंग सेंटर के सामने एक किराने की दुकान से सिगरेट खरीदते और नमकीन देनेके लिये फाड़े गये अख़बार के चौकोर टुकड़ों को ऐश ट्रे की जगह रख कर चाय की दुकान में बैठे बैठे तीन चार चायपी जाते पर यह जरूर था कि Time Out की तरह इस दुकान में बैठे बैठे वे खुद को आर्यन्स के म्यूजिक वीडियोका शाहिद कपूर या तन्हा दिल गाने वाला शान नही समझ पाते थे यह दुकानदार चीकट गमछा लपेटे एकतोंदियल था जो बहुत कम बोलता था और दाँये हाथ से जाँघ खुजाते हुए बाँये हाथ से चाय उड़ेला करता था यहाँशाम को अक्सर सामने की खटाल से रिक्शेवाले चाय पीने जाते और दुकान में धुँआ देखकर बोलते, “ का हो, तूलोग पूरा धुँअहरा देले बाड़SS”|
इन बाबू लोगों के हाथ से देवरिया छूट रहा था। शायद देवरिया वहीं था और ये देवरिया से छूट रहे थे। कोई देवरियासे इन्हे फोन करता और बातो- बातों में चहकता हुआ बताता कि, “देवरिया अब दिल्ली से कम नाही बा, हनुमानमंदिरवा पर बड़का हैलोजन लाईट लगल और ये लोग मन ही मन उसकी नादानी पर हँसते ये धीरे धीरे वोव्याकरण भूलने लगे थे जिसमें खुशी शब्द का अर्थ बारह घंटे लाईट रहना ,शाम को हनुमान मंदिर चौराहे पर सुभाषका आमलेट या समोसा खाना और ओवरब्रिज पर उगता सूरज देखना था। आलू पचास पैसे किलो सस्ता पाने केलिये आदमी आठ रूपया रिक्शा को देकर सब्ज़ी मंडी जाये, जॉली स्टार ट्रेक का शटर वाला पुराना ब्लैक एंड व्हाईटटीवी आदमी हर महिने बनवायें ,बिज़ली का बिल ज़्यादा आये इसलिये जाड़े में फ़्रिज बंद कर देने जैसी बाते इन्हेंदूसरे ग्रह की लगने लगी थी।घर जा रहा हूँकि जगह ये बाबू लोग अबयू.पी. जा रहा हूँकहने लगे थे। कभीवैशाली या कुशीनगर एक्स्प्रेस से आते हुए ये जब ट्रेन कुरना नाला पर बने रेलवे पुल पर पहुँचती तो भाग कर ट्रेनके दरवाजे पर ओवरब्रिज को देखते हुए नथुनों में देवरिया की महक खींच कर धीमे से मुस्कुराने वाले ये बाबूलोग अब प्लेट्फार्म पर गाड़ी लगने तक अपने एसी डिब्बों में सफ़ेद चादर में लिपटे रहते और दिल्ली, बंबई याबंगलौर में किसी देवरिया वाले दोस्त के मोबाईल पर एस एम एस आता, “Just reached Planet D”

No comments: