Saturday, June 26, 2010

उनीदे शहर की दंतकथाये "(एक अंश )

ये धीरे धीरे वो व्याकरण भूलने लगे थे जिसमें खुशी शब्द का अर्थ बारह घंटे लाईट रहना ,शाम को हनुमान मंदिर चौराहे पर सुभाष का आमलेट या समोसा खाना और ओवरब्रिज पर उगता सूरज देखना था। आलू पचास पैसे किलो सस्ता पाने के लिये आदमी आठ रूपया रिक्शा को देकर सब्ज़ी मंडी जाये, जॉली स्टार ट्रेक का शटर वाला पुराना ब्लैक एंड व्हाईट टीवी आदमी हर महिने बनवायें ,बिज़ली का बिल ज़्यादा न आये इसलिये जाड़े में फ़्रिज बंद कर देने जैसी बाते इन्हें दूसरे ग्रह की लगने लगी थी। “घर जा रहा हूँ” कि जगह ये बाबू लोग अब “यू.पी. जा रहा हूँ” कहने लगे थे। कभी वैशाली या कुशीनगर एक्स्प्रेस से आते हुए ये जब ट्रेन कुरना नाला पर बने रेलवे पुल पर पहुँचती तो भाग कर ट्रेन के दरवाजे पर आ ओवरब्रिज को देखते हुए नथुनों में देवरिया की महक खींच कर धीमे से मुस्कुराने वाले ये बाबू लोग अब प्लेट्फार्म पर गाड़ी लगने तक अपने एसी डिब्बों में सफ़ेद चादर में लिपटे रहते और दिल्ली, बंबई या बंगलौर में किसी देवरिया वाले दोस्त के मोबाईल पर एस एम एस आता, “Just reached Planet D”

1 comment:

Anonymous said...

आप के लेख को पढ़ कर गालिब का एक शेर याद आ रहा है।

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह में रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।