Thursday, December 2, 2010
Diary of a Lunatic
May be!
Is love inversely proportional to time and distance? Sounds strange but what time and distance have to do with relations. Relations should be permanent, a banyan tree which grows firmer and more supportive as time passes. Isn’t it? But I see relations decay before me just like the spring comes and old leaves grow older, sometimes they fall sometimes they look older and shaggy with new leaves. Does relations decay with time or they grow firmer? What’s the permutation, combination of relations or let’s say,” is there any?” What we look for when we go in a new relation? A new body which has so many deep dark corners to explore? A mystery or a puzzle as a new personality which offers a thrill in solving or decoding it? Osho once said that it was foolish to seek permanency in love. Is it true that every relation has to decay with time, giving place to a new one? There are so many unfulfilled desires and fantasies which are buried deep and then a blow of wind comes and takes away that pile of dust lying on it; suddenly those desires, passions, fantasies start to haunt you in lonely nights, in moments when you are sitting with no one but you. The fall breeze comes and intensify that haunting. Haunting of desires……? Is there any explanation for that? Is there a manner how to behave with them?
Wednesday, November 3, 2010
दिल्लीहा , बम्बइया बाबू लोग ,सिगरेट और प्लेनेट डी
हर साल गर्मियों की छुट्टियों याने मई जून के महीनों में इस शहर में ऐसे लोग दिखायी देने लगते है जो यहाँ के नहींलगते , कुछ कुछ टूरिस्टनुमा लोग । इन्हें दूर से ही पहचाना जा सकता है; ऐसा नही है कि ये लोग दूसरे ग्रह के लोगलगते है पर फिर भी शहर के बाशिन्दे इन्हें देखते ही पूछ पड़ते है , “ कहाँ रहेलSS बाबू ?” । कारण ये कि ये लोगअक्सर चेहरे पर दाढ़ी का छोटा सा मस्सा लगाये या नये कटिंग के बालों के साथ दिखते है । इनकी कमीज बाकियोंसे कुछ ज़्यादा ही उजली होती है , ये हर चार पाँच लाईन बोलने के बाद कुछ अंग्रेजी में बोलते है और रिक्शा वालाबाहरी समझकर किराया ज्यादा न माँग ले इसलिये उससे भोजपुरी में ही बतियाते है । ये वो लोग है ATM मशीनके बाहर शरीफ़ाना ढ़ँग से लाईन में खड़े रहते है और ATM मशीन के बूथ में अकेले जाना चाहते है, जब दूसरे पैसानिकाल रहे हो तो अपनी गर्दन उचका कर “ हउ दबाईये, आज सलो बा, चलत त बा” जैसे जुमले नही उछालते ।अपनी समझ में ये खुद को मॉड समझते है, दुनिया के साथ चलने वाले, ये बात दीगर है कि शहर के बाशिन्दे इन्हेटीनहिया हीरो” कहते है क्योंकि ये मर्दों की परम्परागत परिभाषा में फिट नही होते । ये रूपये के अवमूल्यन औरमनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण के बाद वाली पीढ़ी के लगते है । इन्हें देवरिया में हर चीज सस्ती लगती है ।हैण्डपम्प का पानी पीने से इनका पेट खराब हो जाता है और कमबख्त देवरिया में बिसलरी की बड़ी वाली बोतलमिलती भी तो नही । ये गगन या हैवेन ड्यू रेस्टोरेंट में कभी कभी ऐसी चीज की फ़रमाईश करते है जो वहाँ के बेयरेने सुनी भी ना हो जैसे कापुचिनो । ये अक्सर खा- पी कर उठते हुए “केतना भईल हो !” की जगह “बिल प्लीज” कहते है । ये लोग भोजपुरी गाने नही सुनते और अगर सुनते भी है तो तब जब इण्डियन ओशेन जैसा कोई बैण्डगाये । देवरिया आकर ये अकसर अतीत की जुगाली करते है , एक ऐसा कोना ढ़ूंढ़ते है जहाँ स्मृतियों को बक्से सेनिकाल कर धूप दिखा सके । ये शहर भर में घूमते है, पुराने चौराहों और अमर ज्योति टाकिज के बाहर की डोसे कीदुकान पर जाते है और अतीत में गुम अपनी निर्दोष हँसी के ठहाकों की प्रतिध्वनियाँ तलाशते है । आठ – दस पहलेतक ये अपने घरों में चिंटू, बबलू, राजू, बिरजू थे आज ये दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग है ।
उत्तर भारत के हर आम शहर की तरह देवरिया से भी लड़के लड़कियाँ बाहर पढ़ने जाते रहे है । शहर में कोईयूनिवर्सिटी है नही, कुल जमा तीन कालेज है देवरिया में । कुरना नाले के पार शहर के सीमान्त पर बना हुआ हैबाबा राघव दास पी.जी. कालेज जिसे लोग प्यार से KNIT कुरना नाला इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलोजी भी कहते रहे है। कालेज गेट के ठीक पहले एक रेलवे क्रासिंग है जिसका इस्तेमाल लड़के चेन खींच कर ट्रेन रोकने, किसीआन्दोलन में ट्रेनों का रास्ता रोकने में करते रहे है । बाबा राघव दास पी.जी. कालेज उर्फ़ BRD की इमारत सरकारीइमारतों की तरह पीले रंग से रँगी हुई है । B.Sc करने के लिये यह शहर भर में एकलौता कालेज है । यहाँ बहुत सारेगुणी अध्यापक है । यहाँ के गणित के प्रोफ़ेसर को देवरिया के छात्र गणित का भीष्म पितामह कहते है । यह बातऔर है कि भीष्म पितामह एक शादी शुदा, घर परिवार वाले व्यक्ति है । हनुमान मंदिर के दाहिने ओर जाने वालीसड़क पर कुछ दूर आगे जाकर बन है महिला पी.जी. कालेज । जाने क्यों यहाँ आज भी छात्राओं के लिये नीले रंगकी यूनिफ़ार्म पहनना जरूरी है । कालेज के गेट के ठीक पास एक स्टेशनरी की दुकान है, एक सौन्दर्य प्रसाधन नुमादुकान और एक फोटो स्टूडियो हैं। कालेज तक आने वाली सड़क के शुरु में ही एक पुलिस बूथ बना है जहाँ अक्सरलड़के बैठे या गायें लेटी हुई मिलती है । शहर के न्यू कालोनी मोहल्ले और खरजरवा की सीमा पर है संत विनोबापी.जी कालेज जो देवरिया की कचहरी के लिये हर साल थोक मात्रा में वकील सप्लाई करता है । BRD के छात्रों कीउर्जा का एक बड़ा हिस्सा इस बात में खर्च हो जाता है कि कैसे रोडवेज की बसों में बिना एक रुपया दिये कालेज तकपहुँचे । संत विनोबा पी.जी. कालेज का प्रचलित नाम “संतबीनवा” है । महिला पी.जी. कालेज या महिला में हालफ़िलहाल तक हिन्दी और समाज शास्त्र विभाग में एक एक अध्यापक थे । हिन्दी विभाग के अध्यापक एम.ए. मेंगोल्ड मेडलिस्ट थे , इस बात की ताईद आज भी उनके घर पर लगे नेम प्लेट से की जा सकती है ।
पर इन सबके बावजूद ये लड़के लड़कियाँ पढ़ते है , यहाँ से बी.एच.यू. , जे.एन.यू. जाते है । देवरिया में रहकर तैयारीकरते है और बैंक पी.ओ. से लेकर लेक्चरर तक बनते है । हाँ आजकल विशिष्ट बी.टी. सी. के द्वारा प्राईमरी काअध्यापक बनना जरा फ़ैशन में है । सरकारी नौकरी पाने वाले यहाँ इज्जत से देखे जाते है । इलाहाबाद के दारागंजदिल्ली के नेहरु विहार में सालों अँधेरी कोठरी में रहकर, खैनी चबा कर , दिन रात पढ़ कर जब यहाँ के लड़के कभीबनकर लौटते है तो भगवान सरीखे हो जाते है । ये हर जानने वाले के घर जाकर आशीर्वाद लेते है, छोटोंको मेहनत और लगन का उपदेश देते है , लोग अपने बच्चों को इनके जैसा बनने को कहते है । अचानक शहर भरमें कहानियाँ सुनायी देने लगती है कि फ़लाँ सब्ज़ी वाले या पान वाले का लड़का PCS, IAS हो गया। देवरिया भर केलोग आप को बता सकते है कि कैसे ये लड़के खाली ब्रेड खा कर पढ़े, इतनी मेहनत किये कि गर्दन के नीचे की हड्डीमें पाव भर चना रखने भर की जगह हो गयी थी। कोई चाचा कहते है कि “बाबू !जब ओकरा के देखनी पढ़ते देखनी” । राघव नगर के तिराहे पर 302 किमाम का बीड़ा बँधवाते वकील साहब कहते है, “ भाई मिश्रा जी ! सुकुलजीउवाका लड़का बाज़ी मार लिया ।” मिश्रा जी दाँत खोदते हुए जवाब देते है वकील साहब ! देवरिया प्रतिभाओं की खान होगया है ।
देवरिया में हमेशा से इतने लोग बाहर पढ़ने नही जाते थे । BRD के पास के पालिटेक्निक कालेज में पढ़ने सेइंजीनीयर की नौकरी पक्की हुआ करती थी , BRD में हिन्दी के लेक्चर में पाँव रखने को जगह नही होती थी, संतबीनवा कभी मॉड कालेज हुआ करता था । आज देवरिया में खुद को टीन-एजर कहने वाले लड़के शायद इसबात पर हँसे लेकिन 88-89 तक लोग यहीं रहना चाहते थे । लड़के, लड़कियाँ बारहवीं पास करते हुए सपने देखते थेकि नई हीरो रेंजर साईकिल पर BRD या संतबीनवा में पढ़ने जायेंगे और खूब सारे लेक्चर अटेण्ड करेंगे । उससमय तक अमूमन होता भी यही था ।लड़के दिन भर क्लास करते घर आते और शाम होते ही शहर भर के दोस्तोंके साथ घूमने निकल जाते थे । वे आमिर माधुरी की फ़िल्मे देखते और प्यार के रंगीन सपने बुनते थे । शरतचंद्रकी किताबे पढ़ते और उनसे लाईनें टीप कर प्रेम पत्र लिखते थे । लड़के लड़कियाँ मिलकर देवरिया में नाटकआयोजित करते , एक दूसरे के घर आते जाते, Bio की क्लास में लड़के अपनी उँगली से खून का कतरा निकाल करलड़कियों की स्लाईड बनवाते थे । और इन सब के बीच अक्सर लड़के की दादी या नानी बीमार पड़ जाया करतीऔर उनकी इच्छा होती कि मरने के पहले बहू का चेहरा देख ले। लड़का कुछ दिन तक चुपचाप रहता, दाढ़ी नहीबनाता और एक दिन बारात के साथ थ्री पीस सूट पहन कर पिता द्वारा तय की गयी शादी कर लेता और बजाजचेतक स्कूटर और एक अदद बीबी लेकर घर चला आता । अब – तब में मरने वाली दादी / नानी अगले कई सालोंतक हँसी – खुशी रहती थी ।
98-2000 के आस पास बारहवी पास करने वाली पीढ़ी के सपने बड़े थे । देवरिया उनके लिये छोटा था , येआसमान छूना चाहते थे । ये लोग दूरदर्शन और ज़ी टी.वी. दोनो देखते थे । दूरदर्शन पर सुबह सवेरे में शान कागाना “ आँखो में सपने लिये घर से हम चल तो दिये ..” देखेते हुये ये बाहर जाने का सपना बुनते थे । 2000 केआस पास देवरिया में एक अघोषित नियम सा बन गया था बारहवीं पास कर इंजीनयरिग या मेडिकल की कोचिंगके लिये बनारस या कानपुर जाने का । जो लोग बी.ए. करने वाले थे वे देवरिया में रह जाते या इनवर्स्टी में पढ़नेगोरखपुर चले जाते । 98 और उसके पहले तक दिल्ली बम्बई वगैरह देवरिया से बहुत दूर थे । वहाँ रहने वाले औरवहाँ से आने वाले लोग देवरिया में VIP का दर्जा रखते थे । जब भी वे आते इन्हें आस- पड़ोस में खाने पर बुलायाजाता था । दिल्ली में रहना उन दिनों सफल होने की निशानी हुआ करती थी । दिल्ली, बम्बई से आया आदमी शानसे सूरज टाकीज के आगे के विजय आप्टीशियन की दुकान पर जाकर डेढ़ दर्जन चश्में देखकर बिना खरीदे आसकता था और किसी देवरिया वाले के ऐसा करने पर झिड़क कर , “ खाली देखे अईल हवा, ले वे के बा नाही” कहनेवाला दुकानदार दाँत चियार कर कहता था “ अरे भईया, अब दिल्ली बम्बई जैसा थोड़े न मिलेगा यहाँ, पैसा खरचाकरना चाहते नही यहाँ लोग।”
2004-05 तक दिल्ली वगैरहा देवरिया से उतने दूर नही रह गये थे । लगभग हर परिवार का एक लड़का, लड़कीबाहर पढ़ाई या नौकरी कर रहा था । देवरिया अपनी रफ़्तार से चलता रहा, महिला की लड़कियाँ किताबें सीने सेलगाये , सर झुका कर रूपसिंगार निकेतन आती जाती रही । 90 के बाद पैदा हुए लोगों ने बारहवीं तक के लियेदेवरिया में रुकना ठीक नहीं समझा । ये वो समय था NIIT और APTECH पुराने पड़ चुके थे, और देवरिया केलोग भी हास्पिटालिटी मैनेजमेंट समझने लगे थे। ये रोडीज देखेने वाली जेनेरेशन थी और देवरिया इनके लियेबहुत स्लो था । ये लोग रियलिटी शो में वोट करते थे, हाईस्कूल में आते आते कैमरा, MP3 वाला मोबाईल रख करचलते थे । देवरिया में इनके लिये कुछ नहीं था , फ़िल्म देखने इन्हें गोरखपुर जाना पड़ता था । ये बाल कटाने किसीगुमटी में नही न्यू कालोनी के एक जेण्टस पार्लर जाते थे और चेहरे के रोओं पर उस्तरा फिरवाकर मनों क्रीमलगवाकर मसाज कराते थे । ये लड़के SplitsVilla देखते और बड़े भाईयों से पूछते , “ hey bro! Did you have a GF in high school?” | कभी कभी लगता था कि अचानक देवरिया भर के लड़के अंग्रेजी बोलने लगे हैं । कमलेशवस्त्रालय इन दिनों सून-सान रहता था वहाँ बैठने वाला दर्जी आजकल सिर्फ़ पेटीकोट सीता था और ये लोग अक्सरमें “Buy1 Get 3” करते पाये जाते थे । जवानों की पुरानी पीढ़ी देवरिया में रही और रची- बसीथी , ये नये लोग देवरिया में रहकर भी देवरिया में नहीं थे और इनके बीच 80 के आस पास पैदा होने और 2000 केइर्द गिर्द बारहवीं पास करने वालों की एक पूरी जमात थी जो देवरिया और दिल्ली के बीच खुद की जगह तलाश रहीथी ।
बारहवीं के बाद देवरिया छोड़ने वाले ये लोग दिल्ली, बम्बई, बैंगलोर वगैरह में पढ़ाई या नौकरी करते थे और सालमें एकाध बार देवरिया में पाये जाते थे । दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग सिगरेट के शौकीन थे । सिगरेट देवरिया मेंक्रान्ति का प्रतीक है, गुटखा पेटी बुर्जुआ और यूँ कह लीजिये पान सामंतवाद का । इन बाबू लोगो के लिये देवरियामें बिना इज्जत गँवाये सिगरेट पीने का कोना खोजना कोल्म्बस की खोज यात्राओं से कम नही था । देवरिया मेंआप ज्यो ही सिगरेट(पान) की दुकान के आस पास दिखे , पीछे से एक चाचा, मामा नुमा आवाज आती है, “ का होबिरजू, कईहा अईला ?” या आप दुकान पर पहुँचे और एक अजनबी सा आदमी आपसे पूछ पड़ता है, “ तू त उमानगर वाले वकील साहब के छोटका लईका हवा ना ? कईहा अईला ?” और जीन्स की जेब में डाले हाथ में फँसासिगरेट के लिये निकाले जाने वाला दस का नोट चुपचाप फिर से जीन्स की जेब में सुस्ताने लगता है । देवरिया मेंसिगरेट पीना लफ़ंगेनुमा लोगो के लिये आरक्षित है , शरीफ़ लोग पान की दुकान पर “ पंडिज्जी ! एक 302 किमाम” कहते मिलते है । ऐसे समय में बाबू लोग सिगरेट पीने सुबह शाम ओवर ब्रिज के पास के सेवा समितिबनवारी लाल नाम के इंटर कालेज के मैदान में चले जाते और नज़र लगाये रखते कि कोई परिचित तो नहीं आ रहा। ऐसा नही कि देवरिया में सिगरेट पीने वाले लोग नही रहे, लोग शुरु से रहे है और ये भी माना जाता रहा कि वे इसशहर में रूकेंगे नही । अंग्रेजी वाले मास्साब जिनके पैजामे का नाड़ा हमेशा लटकता रहता था और जो जूलियससीजर बहुत अच्छा पढ़ाते है एक कहानी सुनाते थे कि उनका एक दोस्त था, बी.ए. में साथ पढ़ता था, सिगरेट पीताथा, बाद में दिल्ली चला गया और आज गोआ में लेक्चरर है । मोहल्ले दर मोहल्ले सिगरेट पीने का कोना तलाशनेवाले इस लोगो के लिये देवरिया में एक छोटा सा रेस्टोरेंट खुला,Time Out | सुनार गली की एक एक छोटी सी गलीमें था यह रेस्टोरेंट , एक दूसरे के इर्द गिर्द चार – पाँच मेजे, दीवार पर कुछ पोस्टर, कोने में लगा एक्जास्ट फ़ैन औरकाउन्टर पर बैठे अंकल जी । ये बाबू लोग हर सुबह ग्यारह बजे के आस पास वही मिलते दस रूपये की काफ़ी औरशहर भर में आठ रूपये में मिलने वाले आमलेट के बीस रूपये देते और मुग्ध भाव से सिगरेट पीते । Time Out इनलोगों का रोमाटिंक सपना था जहाँ अक्सर ’पुरानी जीन्स और गिटार’ जैसे गाने बजते रहते और ये Time Out कोनाम के बैण्ड के म्यूजिक वीडियो में दिखाया जाने वाला काफ़ी हाउस मान कर मगन रहते ।
ये लोग नियम कानून मानने वाले लोग थे। ये सूरज टाकिज पर लाईन में लगकर टिकट लिया करते थे औरपब्लिक प्लेस में सिगरेट पीने से बचते थे। शुरु शुरु में ये Time Out में भी सिगरेट नहीं पीते थे। एक दिन वहाँअंकल जी को सिगरेट जलाता देख इनमें से किसी ने पूछा, “हम यहाँ सिगरेट पी सकते है ?” मूँछ रखने और नरखने की बार्डर लाईन पर खड़े अंकल जी मुस्कुराते हुए बोले, “जब मैं यहाँ पी सकता हूँ तो तुम क्यों नहीं”। काउंटरके पीछे बैठे अंकल जी अक्सर विल्स नेवी कट पीया करते थे। नेवी कट सिगरेट जिसे देवरिया की पान की दुकानोंपर “भील्स” के नाम से जाना जाता था। इन दुकानों पर नेवी कट माँगने पर दुकानदार अक्सर ऐसा मुँह बनाता थाजैसे हनुमान मंदिर चौराहे की चाय की दुकानों पर किसी ने डीकैफ़ मोका माँग लिया हो , दुकान पर रखी डिब्बियोंकी ईशारा करने पर दुकानदार कहता था, “सीधे कहSS भील्स चाही”।
Time Out में मोटे तौर पर तीन तरह के लोग आते थे। एक ये बाबू लोग ; दूसरे कोट-टाई पहन कर शहर दर शहरब्राम्ही आँवला केश तैल बेचने वाले लोग जिन्हें अंग्रेज़ी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव कहा जाता था ; तीसरे वे लड़केलड़कियाँ जो अलग अलग आते, थोड़ी देर अलग अलग मेजों पर बैठकर एक मेज पर बैठ जाया करते थे और 15 मिनट के अंतर पर अलग अलग निकलते थे। ये लड़के अक्सर कोक पीया करते ,लड़कियाँ बहुत कम हँसती थीऔर देर तक स्प्रिंग रोल का टुकड़ा कुतरती रहती थी। इन बाबू लोगों की शिकायत थी कि देवरिया में नेवी कटनकली मिलती थी और जिसे पीने पर मुँह कसैला हो जाया करता था। धीरे धीरे इन बाबू लोग कि सुविधा के लियेमें सिगरेट भी मिलनी शुरु हो गयी और ये नेवी कट मुँह कसैला नही करती थी । बेयरा अब मेज परकाफ़ी के प्यालों के साथ दो नेवी कट ,टेक्का छाप माचिस और ऐश ट्रे भी रख जाया करता था। अंकल जी का बड़ालड़का नोयेडा में किसी फ़ास्ट फूड चेन में ऐक्जीक्यूटिव था । अंकल बताते कि ये काफ़ी मशीन वही लाया था औरवो सोच रहे है कि मेन्यू में कापुचिनों भी रखा जाये। उनके पास इन बाबू लोगों से बतियाने के लिये बहुत कुछ था, दिल्ली नोयडा के बारें में, MBA की डिग्री की बढ़ती डिमांड के बारे में, और ये बाते सुनते – कहते बाबू लोग “एटहोम” फ़ील करते थे ।
एक साल गर्मियों में इन्होने पाया कि Time Out उस छोटी सी जगह से मेन सुनार गली में शिफ़्ट हो गया है । जिनदिनों ये घटना हुई उन्हीं दिनों दिल्ली में अम्बुमणि रामदौस फ़िल्मों में हीरो को सिगरेट पीता न दिखाये जाने कीबात कह रहे थे, डायरेक्टर ये सोच रहे थे कि टेंशन में घिरे हीरो और वैम्प को पर्दे पर कैसे दिखाये, दिल्ली के बसस्टैंड पर सिगरेट पीने का जुर्माना दो सौ रूपये था, रेस्टोरेंट में सिगरेट के लिये अलग स्मोकिंग ज़ोन बनाना जरूरीथा, दिल्ली में कुछ लड़के पब्लिक प्लेस की परिभाषा और इस बात पर बहस कर रहे थे कि सड़क पर चलते हुएसिगरेट पीने से जुर्माना होगा या नहीं । ऐसी ही गर्मियों में इन बाबू लोगों ने पाया कि Time Out की नयी जगहबड़ी तो थी लेकिन सड़क के ठीक किनारे थी और Time Out में अब सिगरेट पीना मना हो गया था। कॉफ़ी वही थीलेकिन बिना सिगरेट बेमज़ा हो गयी थी। एक बेचारे से चेहरे के साथ अंकल जी ने कहा भी, “जानते ही हो वोस्मोकिंग ज़ोन वाला आर्डर, यहीं दरवाजे के पास कुर्सी खींच कर पी लो”। पर वह ये नहीं समझ पाये कि दरवाजे परबैठने से पूरी सड़क उन्हें देख सकती थी और साथ ही नये Time Out में छोटी जगह का एहसास भी नहीं था । ऐसीकिसी दुपहर वहाँ से लौटते एक बाबू ने कहा, “ Partner ! Deoria is no more.
Time Out के बाद ये बाबू लोग शाम का इंतजार करते और लाईट कटते ही किसी अनजाने मोहल्लें में टहलते हुएया पोस्टमार्टम घर के पास अंधेरे कोने में सिगरेट पीते। किसी भी गली या मोहल्लें में निरूद्देश्य घूमना देवरिया मेंसामाजिक अपराध है और अगर आप कहीं रात दस बजे के बाद टहल रहे हो तो हो सकता है कि पुलिस वालेआपको जीप में बिठाकर शहर से दस किलोमीटर दूर बैतालपुर छोड़ आये और बोले कि “अब टहलते हुए घरजाओ”। इन बाबू लोग में अक्सर इस बात पर भी बहस होती कि कौन से मोहल्ले जाये क्योंकि हर मोहल्ले मेंकिसी न किसी के परिचित लोग थे। ओवर ब्रिज से आगे प्रेस्टिज ट्यूटोरियल के सामने की पान की गुमटी भी कुछदिनों तक ठिकाना रही पर मुसीबत यह थी गोरखपुर आने-जाने वाली बस इसी सड़क से गुजरती थी और बस मेंबैठे लोग आपको आसानी से देख सकते थे और बस की गति के सापेक्ष गति से जब तक आप सिगरेट फेंके याछिपाये तब तक आपका नाम लंफगों की लिस्ट में दर्ज हो चुका होता था । ड्यूटी करने रोज़ गोरखपुर जाने वालेतिवारी जी, जो अक्सर “रंगीन रातें” जैसी फ़िल्में देखते गोरखपुर के कृष्णा टाकिज में पाये जाते थे, घर लौटकरअपनी पत्नी से कहते , “सुनतहौ हो! माट्साब के लईकवा लखैरा हो गईल बा, देखनी आज ओवरब्रिजवा के लगेधुँआ उड़ावत रहे”।
इसके बाद सिलसिला शुरु हुआ देवरिया में चाय की ऐसी दुकाने तलाशने का जहाँ ग्राहक अक्सर गायब रहते हो।जहाँ दुकान पर बजरंगी स्वीट्स जैसा कोई बोर्ड न टंगा हो और मिठाई के नाम पर पत्थरनुमा लड्डू हो हो क्योंकिदेवरिया में दुकान पर बोर्ड होना इस बात का सूचक है कि दुकान ठीक ठाक चल रही है । ऐसी दुकानों पर अक्सरएक बूढ़ा आदमी बाँस के पंखे या बेना से मक्खियाँ मार रहा होता, दुकान के आगे कोयले के टुकड़े बिखरे होते, पानीफैला होता , मेजे मैल में लिपटी होती और 3-4 चाय की बिक्री के लालच में दुकानदार दुकान के भीतर सिगरेट पीनेसे मना नहीं करता । पर देवरिया जैसे खाते- पीते शहर में ऐसी बहुत दुकानें नहीं थी और फिर ये बाबू लोग दुकानकी फर्श पर राख झाड़ते हुए ग्लानि और अपराधबोध के बीच की कोई चीज महसूस करते थे। एक दिन इस बाबूमंडली के किसी कोलम्बस ने विजय टाकिज के आगे वाली रिक्शा खटाल के सामने की चाय की दुकान के बारें मेंबताया । यह एक छोटी सी दुकान थी जिसका अगला हिस्सा सड़क पर तोंद की तरह फैला था। दुकान थी सड़क केकिनारे लेकिन मिठाई वाली काउन्टर के पीछे की मेजे सड़क से नहीं दिखती पर समस्या यह थी कि यहाँ चाय तोबिकती थी लेकिन सिगरेट नहीं। इसलिये ये लोग अक्सर विजय टाकिज और बंद पड़े अमर ज्योति टाकिज केतिराहे पर साजन साईकिल रिपेयरिंग सेंटर के सामने एक किराने की दुकान से सिगरेट खरीदते और नमकीन देनेके लिये फाड़े गये अख़बार के चौकोर टुकड़ों को ऐश ट्रे की जगह रख कर चाय की दुकान में बैठे बैठे तीन चार चायपी जाते । पर यह जरूर था कि Time Out की तरह इस दुकान में बैठे बैठे वे खुद को आर्यन्स के म्यूजिक वीडियोका शाहिद कपूर या तन्हा दिल गाने वाला शान नही समझ पाते थे । यह दुकानदार चीकट गमछा लपेटे एकतोंदियल था जो बहुत कम बोलता था और दाँये हाथ से जाँघ खुजाते हुए बाँये हाथ से चाय उड़ेला करता था । यहाँशाम को अक्सर सामने की खटाल से रिक्शेवाले चाय पीने आ जाते और दुकान में धुँआ देखकर बोलते, “ का हो, तूलोग त पूरा धुँअहरा क देले बाड़SS”|
इन बाबू लोगों के हाथ से देवरिया छूट रहा था। शायद देवरिया वहीं था और ये देवरिया से छूट रहे थे। कोई देवरियासे इन्हे फोन करता और बातो- बातों में चहकता हुआ बताता कि, “देवरिया अब दिल्ली से कम नाही बा, हनुमानमंदिरवा पर बड़का हैलोजन लाईट लगल ह” और ये लोग मन ही मन उसकी नादानी पर हँसते । ये धीरे धीरे वोव्याकरण भूलने लगे थे जिसमें खुशी शब्द का अर्थ बारह घंटे लाईट रहना ,शाम को हनुमान मंदिर चौराहे पर सुभाषका आमलेट या समोसा खाना और ओवरब्रिज पर उगता सूरज देखना था। आलू पचास पैसे किलो सस्ता पाने केलिये आदमी आठ रूपया रिक्शा को देकर सब्ज़ी मंडी जाये, जॉली स्टार ट्रेक का शटर वाला पुराना ब्लैक एंड व्हाईटटीवी आदमी हर महिने बनवायें ,बिज़ली का बिल ज़्यादा न आये इसलिये जाड़े में फ़्रिज बंद कर देने जैसी बाते इन्हेंदूसरे ग्रह की लगने लगी थी। “घर जा रहा हूँ” कि जगह ये बाबू लोग अब “यू.पी. जा रहा हूँ” कहने लगे थे। कभीवैशाली या कुशीनगर एक्स्प्रेस से आते हुए ये जब ट्रेन कुरना नाला पर बने रेलवे पुल पर पहुँचती तो भाग कर ट्रेनके दरवाजे पर आ ओवरब्रिज को देखते हुए नथुनों में देवरिया की महक खींच कर धीमे से मुस्कुराने वाले ये बाबूलोग अब प्लेट्फार्म पर गाड़ी लगने तक अपने एसी डिब्बों में सफ़ेद चादर में लिपटे रहते और दिल्ली, बंबई याबंगलौर में किसी देवरिया वाले दोस्त के मोबाईल पर एस एम एस आता, “Just reached Planet D”
Thursday, July 8, 2010
एक उनींदे शहर की दंतकथायें
एक उनींदे शहर की दंतकथायें
आप किसी शहर में हो और ग़र ज़्यादतर मोटरसाईकिलों के पीछे या आगे अध्यक्ष / छात्र नेता / पत्रकार लिखा – खुदा देखे और गौर करने पर मलूम हो कि इनमें से अधिकतर की नंबर प्लेट कोरी स्लेट है या उन पर एक अबूझ सी लिपि में कुछ लिखा है तो मान ले कि आप पूर्वांचल या पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी शहर में है और ये वाहन किसी शेरे-पूर्वांचल या शेर-A- पूर्वांचल का है।
ऐसा ही एक शहर है देवरिया । ये न बनारस है न इलाहाबाद न लखनऊ गोरखपुर और बलिया भी नही । बनारस इलाहबाद इसलिये नही कि गंगा मैया कि कृपा इस शहर पर हुई नही, लखनऊ राजधानी है , गोरखपुर ठहरा महानगर और कोई अध्यक्ष जी यहाँ है नहीं कि यह बलिया हो जाये । ले देकर नदी वगैरह के नाम पर एक कुरना नाला है जिसके किनारे सब्जी मन्डी बनने की बात सालो से होती रहती है और अध्यक्ष के नाम पर एक अदद नगर पालिका अध्यक्ष है इस शहर के पास । नगर पालिका देवरिया जिसके लगाये बिज़ली के खम्भों पर इसका शार्टकट न.पा.दे. देखकर स्कूल आते जाते बच्चे हँसते है ….. अच्छा है नगर पालिका कम से कम बच्चों के चेहरे पर हँसी तो लाती है
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर ले
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
इस शहर का नाम देवरिया क्यों हुआ इसके पीछे अनेक कथाये है। मसलन कुछ का मानना है कि देवरहा बाबा के नाम पर यह देवरिया हुआ पर देवरहा बाबा राजीव गाँधी के समकालीन थे और शहर उससे बहुत पहले का है, कुछ का मानना है कि शहर के कोने पर स्थित देवरही माता के नाम पर यह हुआ, कुछ मानते है कि प्राचीन काल में यह बहुत पवित्र शहर था और माना जाता कि यहाँ देवों का निवास है इसलिये देवरिया हुआ। किसी ज़माने में यहाँ कुछ शिलालेख मिले थे जिनमें इसे देवरिया कहा गया था, कुरना नाला दरअसल कुरना नदी है पर ये बात शहर के कुछेक बुद्धिजीवियों और देवरिया की सरकारी वेबसाईट बनाने वालों के अलावा कोई नही जानता । कौन जाने देवरिया का नाम देवरिया क्यूँ हुआ हाँ ये जरूर है कि अरसा पहले किसी स्थानीय प्रकाशक ने देवरिया का इतिहास नाम की किताब भी छापी थी जिसमें इस पर बिन्दुवार चर्चा थी और साथ ही देवरिया शहर का मानचित्र अर्थात नक्शा भी । कुछ समय तक यह स्कूलों में पाठ्यक्रम का हिस्सा भी रही । आज भी कुछ आएसाये और पीसीयसाये कैन्डिडेट इस किताब को खोजते दिख जाते है कि मान ल इंटरव्यू में पूछ लेलस तब ? पुराने लोग बताते है कि शहर बनने कि पहले असल में कुछ गाँव थे जैसे देवरिया खास या लँगड़ी देवरिया, रामनाथ देवरिया, बाँस देवरिया वगैरह और बाज़ार नुमा जगह थी आज के हनुमान मंदिर से रामलीला मैदान तक की जगह । देवरिया खास खास शायद इसिलिये था कि बाज़ार से सबसे करीब था हाँ लँगड़ी क्यों था मालूम नही ।
आज के देवरिया को देखे तो मालूम होता है कि गोरखपुर देवरिया रोड शहर को दो हिस्सों में बाँटती है पूरब तरफ़ न्यू कालोनी, सिविल लाईन्स , गरुलपार, खरजरवा वगैरह तो इस तरफ़ देवरिया खास, भुजौली , रामनाथ देवरिया वगैरह । पूरब तरफ़ के मोहल्लों में ज्यादतर देवरिया के पाश इलाकों की श्रेणी में आते है । न्यू कालोनी को देवरिया का सबसे मार्डन मोहल्ला कहा जा सकता है । शहर के ज्यादतर स्कूल इस मोहल्ले में है । एक गुरुद्वारा और एक छोटा चर्च भी इसी मोहल्ले की सीमा में है । देवरिया शहर का एक मात्र पार्क, (अर्थात मोहल्ले के बीच में छोड़ा गया ज़मीन का बड़ा टुकड़ा नही जो बच्चों के क्रिकेट खेलने, गायों के आराम और डेटिंग करने और लगन के महिनों में तम्बू , शामियाना लगा कर लोगों को खाना खिलाने के काम आये) , इसी मोहल्ले में है । देवरिया में कुछ और पार्क भी हैं जैसे टाउन हाल के सामने का पार्क जहाँ अतीत में गर्मियों में फ़व्वारा चला करता था और जो आज माध्यमिक शिक्षा संघ से लेकर व्यापारी मंडल के धरनों- प्रदर्शनों के काम आता है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर में भी एक पार्क था लेकिन आज कल वो पार्क की उपरोक्त परिभाषा के अन्तर्गत आता है फ़र्क केवल इतना है कि यहाँ समय समय पर सौ रूपया प्रति टीम लेकर पाँच सौ के ईनाम वाले गोल्डेन कप टाईप नाम के क्रिकेट टूर्नामेंट भी होते है । खैर.. न्यू कालोनी का यह पार्क औसतन हमेशा टीप टाप ही रहता है । पार्क में फ़व्वारा भी है और अगर आपके दिन की शुरुआत नीलकंठ पक्षी देखकर हुई हो तो ये आपको चलता हुआ दिखाई देता है। पार्क के किनारे पर एक गोल छतरी बनी है जिसके नीचे बैठने की भी जगह है इसे गोलाम्बर कहा जाता है । अक्सर शिवाजी और महाराणा प्रताप स्कूल के लड़के यहाँ बैठकर रघुवंश मिश्र कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की लड़कियों को देखने का प्रयास करते मिलते है । ऐसा नहीं है कि ये मोहल्ले आज़ादी के बाद पाश हुए, अंग्रेजो के ज़माने का सिविल लाईन्स भी पूरब तरफ़ ही है । गोरखपुर रोड डी.एम. बंगले के बाद सिविल लाईन्स में बदल जाती है । सिविल लाईन्स की सड़क देवरिया की कुछ उन चुनिन्दा सड़को में है जहाँ सड़क के बीच डिवाईडर है हालाँकि देवरिया के लोग आज तक डिवाईड नहीं हुए और हिन्दुत्व का उभरता गढ़ कहे जाने वाले गोरखपुर के ठीक बगल में होने के बावजूद यहाँ “दो समुदायों के बीच तनाव” जैसी खबरें अखबार के तीसरे पन्ने पर नही मिलती, बाँटने वाली हर चीज का विरोध करते हुए देवरिया के लोग डिवाईडर को अनदेखा कर सड़क के दोनों हिस्सों को भी एक ही मानते है ।
हर शहर कि तरह यहाँ भी मोहल्लों के नाम बदलते रहते है या नये मोहल्ले बनते रहते है और कुछ साल बेनाम रहने के बाद उन्हें भी नये नाम मिलते रहते है जैसे देवरिया खास का एक हिस्सा काफ़ी साल खाली रहने के बाद बसा और बसने के बाद कुछेक साल बेनामी रहने के बाद नाम हो गया कृष्णा नगर कालोनी , कृष्णा नगर इसलिये कि इस मोहल्लें में वृन्दावन वालों ने एक सत्संग भवन या गीता भवन बना दिया जो सुबह शाम अपने लाउड्स्पीकर से लोगों का भ्रम दूर कर उन्हे भक्ति क्षेत्रे खींचता रहता है । ऐसे ही भुजौली इलाके के किनारे विकास प्राधिकरण ने एक कालोनी बनायी नाम रखा आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर जो कालान्तर में RC कालोनी के नाम से जाना गया,जानकारों का कहना है कि जो सज्ज्न उस समय प्राधिकरण के मुखिया थे वे बड़े साहित्यानुरागी जीव थे,। अब मसला ये हो गया कि इस कालोनी की सीमा के पहले जो इलाके थे उन्हे क्या कहा जाये क्योंकि रामचंद्र शुक्ल कालोनी कहे तो रिक्शावाला उतनी दूर जाने को तैयार होता नहीं था, भुजौली कहे तो इतना बड़ा इलाका है कि घर की location बतानें से कम समय में आदमी पैदल पहुँच जाये खैर एकाध साल के बाद इस इलाके का नाम हो गया भुजौली कालोनी ।
इस शहर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर है । देवरिया उत्तर प्रदेश का आखिरी शहर है और इसके बाद सीवान से बिहार शुरु हो जाता है । गोरखपुर वाले और गोरखपुर ही क्या लखनऊ तक के लोग देवरिया को बिहार में धकेल देते है, जब देवरिया वाला मासूमियत से कहता है कि देवरिया यू.पी में है तो सामने वाला कहता है “ अरे खाली कहे के यूपी में बा” और इस तर्क के आगे देवरिया वाला ढ़ेर हो जाता है । जब तक कुशीनगर देवरिया में था तब तक देवरिया दुनिया के नक्शे पर था पर जब से कुशीनगर अलग ज़िला बन गया देवरिया यूँ कह लीजिये बिना दुकान की बाज़ार हो गया । अब आलम यह है कि देवरिया का आदमी परदेस में , परदेस जो दिल्ली से अमरीका तक फैला है, खुद को गोरखपुर का कहता है । गोरखपुर में कहाँ ? के उत्तर में धीरे से बोलेगा, “देवरिया” ।