चचा गालिब तुम होते तो पूछता कि सचमुच नींद रात भर क्यों नहीं आती
इस शहर में जहाँ न वस्ल की बातें है न इश्क के किस्से
बस यूँ ही पडा रहता हूँ हर रात एक नींद के इंतज़ार में
बताओ न क्या करे खूने जिगर होने तक
ये रात चुपचाप आकर मेरे कानो में मेरी उमर के पहाड़े दोहराती है ,
अधलेटा सा ये उजबक एक पीली सी रोशनी में उमर का हिसाब करता है , और ये रात कमबख्त उन तमाम दुआओं , प्रार्थनाओ और पापो के बहीखाते दिखाती है जो एक बीती उमर के तहखानों में कैद है
और कौन सी राहते है वस्ल की राहत के सिवा
बताओ न चचा गालिब ?