उदयपुर………
सोचता हूँ कितनी यादें रह जायेगी इस शहर के बारें में जब मैं यहाँ से चला जाउँगा। नीमच माता का मन्दिर, उस होटल का बड़ा सा झरोखा, वो गाँव जो मैने देखे, सालेरा कलाँ के उस बूढ़े दम्पति का चेहरा उनकी “हाँट” करती आँखे, वो लोग उनके चेहरे, आँटी की बातें, एन्द्रे, गैबी………..
अक्सर मैं जब अलग अलग शहरों के बारें में सोचता हूँ तो जाने कितनी यादें लस्तम्पस्तम लड़खड़ाती चली आती है और आश्चर्य तब होत है जब मैं अक्सर बातें करते हुए उन चीजों के बारें में खमोश रह जाता हूँ जिन्होने मुझे कहीं गहरे तक भीतर छुआ था।
नीमच माता का मन्दिर।
इस शाम गैबी ने कहा कि यहाँ चलते हैं। मन्दिर एक उँची पहाड़ी पर है।नीचे के मुख्यद्वार पर लि्खा हैं “ उदयपुर की वैष्णों देवी”। हम भारतीय हर जगह उपमायें ढ़ूँढ़ लेते है क्यों? शायद हम हर चीज के अलग अलग होने के बावजूद उन टुकड़ों में एक मुक्क्मल तस्वीर तलाशते है जैसे बचपन में हम उस पत्रिका में अलग अलग टुकड़ों में छुपी तस्वीर ढ़ूढ़ते थे। पहाड़ी पर चढ़ते चढ़ते लगा कि मैं वहीं नहीं रह गया था जो मैं नीचे था, ये पूरी चढ़ाई आपको इतना हल्का कर देती है कि उपर जब मैं पहाड़ों की तरफ मुँह करके खड़ा था मैं सिर्फ़ अपने पास था….वो विवेक नहीं जो ज.न.वि. में है, जो फलाँ- फलाँ है। शायद इसिलिये पहाड़ मुझे बौना नहीं करते बल्कि उनका होना मुझे खुद के बहुत करीब कर देता है और मैं धर्मशाला और उदयपुर के पहाड़ों के बारें में सोच रहा था कि दोनो कितने समान होते हुए भी कितने अलग अलग हैं। धर्मशाला के पहाड़ो में एक अजीब तरह की स्निग्धता है और कोहरे का पर्दा उन्हें और भी मयावी बना देता है जैसे एक रहस्यमय दुनिया आपको बुला रही हो जबकि यहाँ पहाड़ अपनी रुक्षता में खड़े हैं आपको सारी सच्चाईयाँ से रु-ब-रु कराते हुए। अजीब है ये शहर …..एक तरफ देखें तो झील का विस्तार है और गर्मियों में उनके सूख जाने, सालों से बारिश न होने के किस्से…तो दूसरी ओर ये पहाड़ जो चारों ओर से इस शहर को बाहों में भरे हुए हैं जैसे कितनी आत्मीयता हो ……….
लिखते हुए उस मन्दिर की कर्कश आरती याद आ रही है जिसमें एक शोर था जो आपको बहुत भीतर ले जाता है। नीमच माता के मन्दिर के बारें जो याद रह जायेगा वो उस मन्दिर के पिछले हिस्से के सामने फैला पहाड़ो का लैण्डस्केप है तो सामने के हिस्से के सामने झील का विस्तार और उस पर तैरती शहर की रोशनियाँ। सारा शहर झील के किनारों पर बसा है और शाम होते ही पूरे शहर की रोशनियाँ पानी पर अठखेलियाँ करने लगती है । जब भी छत पर बैठता हूँ नीमच माता के मन्दिर की रोशनियाँ उपर से देखती है और मुझसे उन अन्धेरे कोनों के बारें में सवाल करने लगती है जिन्हें मैंने अपने आप से भी छुपाकर रखा है, वे कोने जहाँ सारे पुराने पाप, आत्मस्वीक्तियाँ, और जाड़ों के कपड़ों की तरह तह करके रखे गये कन्फ़ेश्न्स हैं जिन्हें बाहर निकालने की तारीख़ तय नहीं है……शायद एक दिन मैं ये अतीत का बहीखाता कहीं छोड़ आउँगा जहाँ से उनकी आवाज़ भी मुझ तक न पहुँच सके……………..
होटल जगनिवास पैलेस का झरोखा और लेक पैलेस के सामने की झील में दम तोड़ता सूरज
पुराना उदयपुर या ओल्ड सिटी ! यहीं कहते हैं शहर के इस हिस्से को हर टूरिस्ट बुक में लेकिन यहाँ के लोगो के लिये वो ओल्ड सिटी नहीं आज भी हाथी पोल, घंटा बाज़ार है सिटी पैलेस के बिल्कुल पास होने के बावजूद। हर मकान में एक रूफटाप रेस्तराँ है, फ़्रेच क्यूजिन से लेकर जर्मन बेकरी तक की दुकान, साफ़े, जूते सब कुछ जो कल तक अतीत में आम आदमी के लिये No Entry Zone में था आज बाहें पसारे खड़ा है भले ही आम आदमी न पहुँच सके लेकिन कुछ सौ रुपयें में उन सारी जगहों में दाखिल हो सकते है जहाँ कल तक केवल राजसी पहुँच थी। शहर के इस हिस्सें में हर दो कदम पर कोई टूरिस्ट टकरा जाता है एक मुस्कान लिये एक “बैकपैक” में बन्द ज़िन्दगी के साथ । गलें में लटका कैमरा जैसे हम कितना कुछ भर ले जाना चाहतें हो ……….
दुपहर की धूप अभी ढ़ली नहीं सूरज माथे के जरा ऊपर चमकता है और अपने होने का अहसास बनाये रखता है। गला सूख रहा है और मैं बस एक बीयर चहता हूँ और शहर के इस खूबसूरत लिलिपुटियन हिस्सें में बार ढ़ूँढ़ना किसी अक्कड –बक्कड पहेली में रास्ता ढ़ूँढ़ने सा है, हर रास्ते से फूटती गलियाँ और गलियों के इस अंतहील सिलसिले में भटकता मैं……. सिटी पैलेस देखने पहुँचा तो बताया गया कि समय खत्म हो गया है और मैं चाहूँ तो परकोटे के हिस्से में जा सकता हूँ जहाँ एक छोटा लान और रेस्तराँ है। अन्दर पहुँचा तो भारत बेचने सरीखी कुछ दुकानें, कुछ परिवार जो लान में सुस्ता रहे थे, बड़ी-बड़ी मूँछो और निसंग चेहरे वाले दरबान दिखे, प्यास को कँधे पर लटकते बैग के हवाले कर कुछ देर मडँराता रहा पर जाने क्यों मन लगा नहीं। गलियों में भटकता हुआ अलग अलग बोर्ड पढ़ता रहा हर जगह वही रूफ टाप रेस्तराँ। एक नामालूम सी गली कि ओर मुड़ा और अचानक सबसे ऊँचे रूफ टाप रेस्तराँ का बोर्ड दिखा। आगे बढ़ा तो हर भारतीय शहर की तरह फिर वही रूखे चेहरे दिखे जैसे पूछ रहे रहे हो , “यहाँ भी आ गये?”
सामने जगनिवास के बोर्ड पर लिखा था कि यहाँ बीयर बेचने का लाईसेंस उन्हीं के पास है। ऊपर आया तो फिर एक मूँछ वाले चेहरे ने स्वागत किया।
झरोखे में एक गद्दा सा लगा है। अधलेटे हुए मैं उजबको की तरह बाहर देख रहा हूँ । धूप अभी भी आँख मिचौली कर रही है और शीशे के पारदर्शी परदे से होती हुई आँखों में चमक रही है। सामने की झील के किनारे लेक पैलेस खड़ा है, झील सूख सी गयी है, किनारों पर जमा कूड़ा और घास, लेक पैलेस के किनारों की ज़मीन पानी से उग आयी है। सामने झील के उस किनारे एक युवा जोड़ा टहलता दिखायी पड़ता है