Thursday, November 5, 2009

कबीर : एक संवाद

विवेक- बालम आओ हमरे गेह रे, तुम बिन दुखिया देह रे!! सब कोउ कहे मोका तुम्हरी नारी, हमके लागे लाज रे o beloved! come to my house, this body pines for you!! everyone addresses me as your wife, I blush --कबीर

जीतेंद्र- विवेक यह पद मुझे बहुत पसंद है. मानवीय संवेगों (पैसन) का इतनी जबरदस्त अभिव्यक्ति मैंने इतनी शालीन या सभ्य भाषा में इतने जबरदस्त संवेग की अभिव्यक्ति अब तक की किसी कविता में नहीं देखी है. हॉलाकि इस तरह की शिद्दत शमशेर में कुछ हद्द तक देख पाता हूँ, परन्तु उनकी भाषा वायवीय हो जाती है.
सलाह एक मात्र है कि तुम बिन दुखिया देह रे, का अर्थ अनुवादित पंक्ति नहीं देती है। मैं तो नहीं सोंच पा रहा हूँ.
विवेक - हाँ तुम्हारी बात सच है, मैंने कई शब्दों के बारें में सोचा pining, aches, craving, ...पर उस समय लिखना जरूरी लगा तो जो शब्द पहले दिमाग में आया लिख दिया, मुझे ये पद बेहद पसँद है क्योंकि एक तो वो वजह है जो तुमने कही, इतना तीव्र अहसास...
दूसरे प्रेम की इतनी आधुनिक परिभाषा," एकमेक ह्वै सेज ना सोये , तब लग कैसा नेह रे" मध्यकालीन कविता में , अदभुत!!!गौर करने की बात ये है कि कबीर यहाँ कहीं नहीं कहते कि राम को जाकर बताओ, शब्द है " बालम! और पिया!" प्रेम की तड़प और ठेठ इसी धरती की, जिसकी प्रतिध्वनियाँ ," लिखि लिखि पतिया पठवली" से लेकर भिखारी ठाकुर के " पिय गईलन कलकतवा" तक सुनी जा सकती है,
कौन कहता है कि इश्क़ मज़ाजी और हक़ीकी होता है !
मैं इस पद को सिर्फ़ उस प्रेम की तड़प के तौर पर पढ़ता हूँ, कौन जाने कोई राम, ब्रम्ह है भी या नहीं, तो
" तलफै बिन बालम मोर जिया...
दिन नाहिं चैन रात नाहिं निंदिया"

जीतेंद्र - विवेक, शुक्रिया. मुझे हमेशा महसूस होता है कि भले ही हम 'अभी' परिभाषित न कर पा रहे हों, लेकिन प्रेम की आधुनिक संवेदना को हम लोग साझा कर करते हैं. मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ कि तुम्हारे तर्जुमों की किताब छपेगी. जिन्दा रहा तो मैं ही उसका पहला रिव्यू करूँगा.